Supreme God is Kabir Saheb

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#यथार्थ_भक्ति_बोध_Part5

2- गाँव दिनौद जिला भिवानी में श्री ताराचन्द जी द्वारा चलाया गया। ये सब 20वीं शताब्दी में पनपे हैं। लगभग पूरे भारत वर्ष में फैल चुके हैं। इनके अतिरिक्त निरंकारी पंथ, ब्रह्मा कुमारी पंथ, हंसा देश पंथ (1- सन्त श्री सतपाल जी, 2- संत श्री प्रेम रावत उर्फ बालयोगेश्वर का पंथ) ये भी उपरोक्त पंथों की तरह भारत वर्ष के साथ-साथ अन्य देशों में भी फैल चुके हैं। उपरोक्त पंथों ने सत्य भक्ति अर्थात् शास्त्रोक्त साधना का नामोनिशान मिटा दिया है। इन पंथों ने ज्योति यज्ञ (हवन यज्ञ) को मना कर रखा है। कहते हैं कि बाहर की ज्योति से मोक्ष नहीं है। शरीर के अन्दर की ज्योति को जगाना है। राधास्वामी पंथ व इसकी शाखाओं का मानना है कि वेद तथा गीता को हम नहीं मानते। हम तो संतों की वाणी को सत्य मानते हैं। वेद व गीता भी तो ऋषियों ने लिखे हैं। उन ऋषियों को ऊपर के मण्डलों का ज्ञान नहीं था। इसलिए वेदों तथा गीता में ऊपर के मण्डलों का ज्ञान नहीं है। हमारी भक्ति साधना तो त्रिकुटी स्थान से प्रारम्भ होती है। हमारे सन्त श्री शिवदयाल से पहले किसी को भी ऊपर के रुहानी मण्डलों की चढ़ाई व साधना का ज्ञान नहीं था। श्री शिवदयाल सिंह सेठ महाराज राधास्वामी का ज्ञान व सत्संग वचनों का संग्रह पुस्तक ‘‘सार वचन कार्तिक राधास्वामी’’ नाम की पुस्तक में लिखे हैं। ज्ञान इस प्रकार है:- सब से ऊपर राधास्वामी धाम है, यही सच्चे साहिब का नाम है। इससे दो स्थान नीचे सतनाम का स्थान है। इसी ‘‘सतनाम’’ को सन्तों ने सतलोक, सारनाम, सत्पुरुष, सारशब्द, सतनाम कहा है।’’
 प्रिय पाठकों से निवेदन है कि यह ज्ञान श्री शिवदयाल सिंह जी राधास्वामी का है। जिससे पूर्वोक्त सर्व पंथ निकले हैं। यह ऐसा ज्ञान है जैसे कोई कहे कि कार को पैट्रोल, सड़क, ड्राईवर, शहर तथा कार कहा जाता है। यह व्याख्या मूर्ख व्यक्ति कर सकता है जिसने कभी कार सड़क, शहर तथा पैट्रोल व ड्राईवर न देखा हो और अन्त में डींग मारता हो कि मैं शहर में जाता हूँ, वहाँ कार में घूमता हूँ। कार सड़क पर पैट्रोल से चलती है, ड्राईवर चलाता है। यह किसी से सुन कर बताता है। जब उससे पूछो कि कार कैसी है, पैट्रोल, सडक कैसा है, ड्राईवर कैसा है जिसने कभी कुछ देखा ही न हो, केवल सुना हो वह भी अधूरा। ऐसे ही अज्ञानी से सुना अज्ञान तो वह ऐसी ही व्याख्या करेगा जैसे उपर बताई है। कार को शहर, सड़क, पैट्रोल, ड्राईवर भी कहते हैं। ऐसा ही अनुभव है श्री शिवदयाल सिंह सेठ महाराज जी राधास्वामी का जिसने कहा है कि ‘‘राधास्वामी मुकाम’’ से दो स्थान नीचे ‘सतनाम’ का स्थान है। इसी सतनाम को सतलोक, सारनाम, सार शब्द, सत पुरुष और सतनाम कहा जाता है। वास्तव में ‘सतनाम’ तो साधना का मन्त्र है जिसमें दो अक्षर हैं (ओम् + तत् जो सांकेतिक है) सारनाम व सार शब्द ये भी साधना के मन्त्र हैं। सतलोक वह स्थान है जहाँ पर परमात्मा रहते हैं। ‘सत्पुरुष’ यह परमात्मा का विशेषणात्मक नाम है, सत् पुरुष का अर्थ है ‘अविनाशी परमात्मा’। अब पाठकजन आसानी से समझ सकते हैं कि राधास्वामी पंथ तथा उसकी शाखाओं का ज्ञान कैसा है फिर उनकी भक्ति की साधना कैसी होगी उनको क्या उपलब्धि हुई होगी राधास्वामी कोई धाम नहीं है और न साहेब अर्थात् परमात्मा का नाम है। इससे सिद्ध हुआ कि इन उपरोक्त व पूर्वोक्त पंथो ने शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचारण (मनमानी साधनायें) प्रारम्भ कर रखा है जो व्यर्थ है।
🌿 प्रमाण: श्री मद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि जो व्यक्ति शास्त्राविधि को त्यागकर मनमाना आचरण (मनमानी साधना) करते हैं, उनको न तो सुख प्राप्त होता है, न कोई कार्य में सिद्धि प्राप्त होती है और न उनकी गति (मोक्ष प्राप्ति) होती है अर्थात् व्यर्थ साधना है।(गीता अध्याय 16 श्लोक 23) इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। कौन-सी साधना करनी चाहिए, कौन-सी नहीं करनी चाहिए, वह शास्त्रों से ही जानें। किसी के शास्त्र विरुद्ध ज्ञान के आधार से मनमाना आचरण करना व्यर्थ है। (गीता अध्याय 16 श्लोक 24)
 शाखा जिनको भक्ति के लिए आधार माना जाना चाहिए:- 1- चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद), 2- श्री मद्भगवत गीता, 3- सूक्ष्म वेद अर्थात् तत्वज्ञान जिसके विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक 32 व 34 में कहा है। वह परम अक्षर ब्रह्म द्वारा अपने मुख कमल से कहा ज्ञान है जिसे सचिदानन्द ब्रह्म की वाणी (कबीर वाणी) भी कहा जाता है। ये शास्त्र हैं भक्ति के लिए की जाने वाली साधना तथा आध्यात्म ज्ञान के लिए। इनके अतिरिक्त अन्य 18 पुराण हैं जो ज्ञान प्राप्ति व सूक्ष्म वेद के ज्ञान की पुष्टि में सहयोगी हैं। इनमें सम्पूर्ण शास्त्रानुकुल ज्ञान नहीं है। उपरोक्त सर्व पंथों में ‘हवन यज्ञ’ करने को मना किया जाता है तो यह शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण है। गलत साधना है। इन पंथों में साधना के नाम जाप के मन्त्र भी शास्त्रों के विपरीत हैं। इनका ज्ञान आगे जाप यज्ञ में किया जाएगा। हवन यज्ञ जो शास्त्राविधि त्यागकर किया जाता है, उससे हानि अधिक लाभ कम होता है।
  🌿प्रमाण:-
 1- हवन यज्ञ जो शास्त्राविधि त्यागकर किया जाता है, वह हवन कुण्ड बनाकर लकड़ियां जलाकर ही घी डालकर किया जाता है। जिससे कार्बन डाई ऑक्साइड अधिक निकली है। जबकि ज्योति यज्ञ में नाम मात्र दूषित वायु निकलती है। पूर्व समय में ऋषि (ब्राह्मण) लोग राजाओं के घर पर हवन यज्ञ का अनुष्ठान किया करते थे। लगभग 10 फुट गहरा और 10 फुट चौड़ा व लम्बा पक्का हवन कुण्ड तैयार करते थे। उसमें एक मन (लगभग 40 कि-ग्रा-) लकड़ी डालकर चारों और बैठकर ब्राह्मण घी डालते रहते थे। अग्नि प्रज्वलित होती रहती थी। यह शास्त्राविधि रहित साधना इसलिए करते थे कि राजाओं के घर किसी वस्तु का अभाव नहीं होता था। राजा लोक भी धार्मिक होते थे। वे अधिक धर्म करने में विश्वास रखते थे। ऋषिजन राजाओं को खुश करने के लिए शास्त्राविधि से हवन यज्ञ (ज्योति यज्ञ जो ऋग्वेद 8 सूक्त 46 मन्त्र 10 में है उसको) को त्यागकर मन की यो

जना अनुसार हवन कुण्ड बनाकर हवन यज्ञ करने लगे। फिर यह परम्परा बन गई जो अब सत्य लग रही है, परंतु जन साधारण में शास्त्राविधि अनुसार ज्योति यज्ञ से हवन परम्परा अभी तक जीवित थी जो वर्तमान में पूर्वोक्त पंथों ने उससे भी वंचित कर दिया है।

 📚 पौराणिक सत्य कथा:- एक समय राजा दक्ष ने हवन यज्ञ का अनुष्ठान कराया। उस समय बहुत बड़ा हवन कुण्ड तैयार किया गया। उस यज्ञ में श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु सहित अनेकों देवता व ब्राह्मण तथा ऋषिजन आए थे, परंतु श्री शिवजी नहीं बुलाए गए थे क्योंकि राजा दक्ष की पुत्राी पार्वती जी ने अपने पिता की इच्छा के विपरीत भगवान शिव से विवाह किया था। जिस कारण से राजा दक्ष ने पार्वती से कहा था कि कभी मेरे घर पर न आना। जिस कारण से पार्वती विवाह के पश्चात् अपने पिता के घर नहीं आई थी। इसीलिए राजा दक्ष ने अपनी पुत्राी पार्वती तथा दामाद शिव को आमन्त्रिात नहीं किया था।
 किसी बात पर भगवान शिव अपनी धर्मपत्नी पार्वती जी से नाराज हो गए और उससे बातें करना तथा पत्नी व्यवहार करना बन्द कर दिया। पार्वती जी को निश्चय हो गया कि अब शिवजी मेरे से कभी प्रसन्न नहीं होंगे। लड़की को ऐसे समय में अपने पिता का ही घर नजर आता है। इसलिए शेष जीवन बिताने के लिए अपने पिता दक्ष के घर आ गई। वहाँ पर हवन यज्ञ चल रहा था। पिता ने अपनी पुत्राी पार्वती का अपमान किया, कहा कि तुझे किसने बुलाया है, क्यों आई इस बात से क्षुब्ध होकर पार्वती जी ने हवन कुण्ड में छलाँग लगा कर आत्महत्या कर ली। लाभ के स्थान पर हानि हो गई। यदि ज्योति यज्ञ (बाती बनाकर रुई पर घी डालकर यज्ञ) किया होता तो पुत्राी नहीं मरती क्योंकि कुछ समय उपरान्त पिता तथा पुत्राी का क्रोध समाप्त हो जाता तथा बहुत बड़ा अनर्थ बच जाता। इसलिए शास्त्राविधि अनुसार साधना करना ही श्रेयकर है। यह हवन यज्ञ करना भी अनिवार्य है।

क्रमश:....

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